हिन्दू धर्म में पशु बलि देना परम्परा की देन है या फिर हिन्दू धर्म ग्रंथों में पशु बलि को जघन्य अपराध माना गया है ?

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संसार के सभी धर्मों में जीव हिंसा या फिर पशु बलि को पाप माना गया है ! धर्म शास्त्रों के अनुसार जो धर्म प्राणियों की हिंसा का समर्थन करता है वह धर्म कभी कल्याणकारी हो ही नहीं सकता ! ऐसा माना गया है कि आदिकाल में धर्म की रचना संसार में शांति और सदभाव को बढ़ाने के उद्देश्य से की गयी थी ! यदि धर्म का उदेश्य ये ना होता तो उसकी इस संसार में आवयश्कता ही ना रहती ! किन्तु कुछ अज्ञानियों ने अपने फायदे के लिए इसमें पशु बलि जैसी परम्परा को जोड़ दिया , जो हज़ारों वर्षो से चली रही है ! अब यहां सवाल ये उठता है कि क्या हिन्दू धर्म में पशु बलि देना परम्परा की देन है या फिर हिन्दू धर्म ग्रंथों में पशु बलि को जघन्य अपराध माना गया है !

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  आज हम आपको बताएंगे श्री कृष्ण द्वारा या फिर गरुड़ पुराण में बलि को पाप माना गया है या पुण्य ? कुछ लोग हिन्दू धर्म में पशु बलि का समर्थन करते है परन्तु ऐसे लोग क्यों ये नहीं सोचते कि आदिकाल में देवताओं एवं ऋषियों ने जिस विश्व कल्याणकारी धर्म का ढाँचा इतने उच्चकोटि के आदर्शों द्वारा निर्मित किया ,  जिनके पालन भर से मनुष्य आज भी देवता बन सकता है ! उस धर्म के नाम पर वो पशुओं का वध करके हिन्दू धर्म को कितना बदनाम कर रहे है ! इस तरह की परम्परा के नाम पर धर्म को कलंकित करना और लोगों को पाप का भागी बनाना कहां तक उचित है ! देवताओं की आड़ में पशु बलि करने वाले ये क्यों नहीं सोचते कि इस अनुचित कुकर्म के साथ क्या देवी देवता प्रसन्न हो सकते है ? यदि वो ऐसा नहीं सोचते तो वे ये मान ले कि वो उनके साथ-साथ दूसरों को भी अन्धविश्वास की पराकाष्ठा तक पहुंचने में मदद कर रहें है ! यदि आप देवी देवताओं के नाम पर पशु बलि को सही मानते है तो जान लीजिये कि ऐसे लोग जीवन भर मलिन , दरिद्र और तेजहीन ही रहते है ! ऐसे लोग कभी फलते - फूलते नहीं और सुख - शांति सम्पन्न नहीं पाए जाते ! इतना ही नहीं वे निर्दोष जीवों की हत्या के पाप के कारण उनके परिवार के सदस्य अधिकतर रोग , शोक और दुःख - दरिद्रता से घिरे रहते है ! हिन्दू धर्म में ज्यादातर लोग देवी काली के मंदिरों में अथवा भैरव के मठों पर पशु बलि देने का काम करते है ! और ऐसे लोग यह सोचते है कि माता काली पशुओं का मांस खाकर और खून पीकर प्रसन्न हो जाती है ! लेकिन वो ये भूल जाते है कि परमात्मा की आधारशक्ति और संसार के जीवों को उत्त्पन्न और पालन करने वाली माँ क्या अपनी संतानों का रक्तमांस पी और खा सकती है क्योंकि माँ तो माँ होती है ! जिस प्रकार साधरण मानवीय माँ अपने बच्चे को जरा सी चोट लगने पर पीड़ा से छटपटा उठती है और माँ की सारी करुणा प्यारे बच्चे के लिए उमड़ पड़ती है ! तो भला करुणा , दया और प्रेम की मूर्ति जगतजननी माँ काली के प्रति यह विश्वास किस प्रकार किया जा सकता है कि वह अपने उन निर्हिन बच्चों का खून पीकर प्रसन्न हो सकती है ! हिन्दू धर्म ग्रंथों में सभी प्रकार की हिंसा को निषेध माना गया है ! वेदों से लेकर पुराणों तक में कहीं भी पशु बलि का समर्थन  नहीं मिलता ! हिन्दू धर्म ग्रंथों के अनुसार यदि कोई व्यक्ति देवयज्ञ , पितृश्राद्ध और अन्य कल्याणकारी कार्यों में जीव हिंसा करता है तो सीधा वह नरक में जाता है !

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  साथ ही देवी देवताओं के बहाने जो मनुष्य पशु का वध करके अपने संबंधियों सहित मांस खाता है वह पशु के शरीर में जितने रोम होते है उतने वर्षों तक असिपत्र नामक नरक  में रहता है ! इसी तरह जो मनुष्य आत्मा , स्त्री , पुत्र , लक्ष्मी और कोई भी इच्छा से पशुओं की  बलि देता है वह स्वयं ही अपना नाश करता है ! इतना ही नहीं वेद में तो इस बात का भी उल्लेख मिलता है कि भगवान ये चाहते है कि कोई भी मनुष्य  घोड़े और गाये उन जैसे बालों वाले बकरी , ऊँट आदि चौपायों और पक्षियों जैसे दो पगों वाले को भी ना मारे ! इसी प्रकार महाभारत पुराण के शांतिपर्व में यज्ञादि शुभ कर्मों में पशु हिंसा का निषेध करते हुए बलि देने वालों की निंदा की गयी है ! भगवान श्री कृष्ण के अनुसार जो मनुष्य यज्ञ , वृक्ष , भूमि के उद्देश्य से पशु का वध करके उसका मांस खाते है वह धर्म के अनुसार किसी भी दृष्टिकोण से प्रशंसनीय नहीं है ! ऐसे लोगों को पृथ्वी पर सबसे महापापी जीव कहा गया है ! क्योंकि जानवर तो पशु बुद्धि होने के कारण ही एक दूसरे को मारकर कहते है ! लेकिन मानवों में तो करुणा  , दया और प्रेम का भाव पाया जाता है और इसी वजह से तो मनुष्य पृथ्वी लोक के बाकीं प्राणियों से अलग है ! फिर यदि हम भी जानवरों की तरह ही दूसरे जीवों को मारकर खाने लगे तो हममे और जानवरों में क्या अंतर रह जायेगा ! इसीलिए अगर आप भी पशु बलि का समर्थन करते है तो उसे छोड़ दे क्योंकि धर्म शास्त्रों में पशु बलि का कहीं भी उल्लेख नहीं किया गया है ! कुछ अल्पज्ञानियों के कारण सदियों से इस परम्परा को हमारा धर्म ढोता रहा है !



क्या आपने कभी सुना है कि भगवान विष्णु और भगवान शिव के बीच एक भयंकर युद्ध हुआ था ! बहुत ही कम लोगों को यह बात पता है ! लेकिन क्या आप ये जानते है कि ये युद्ध कितने दिनों तक चला था और इस युद्ध का इस संसार पर क्या प्रभाव पड़ा था ! युद्ध में कौन विजयी हुआ था ?

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भगवान विष्णु ही इस संसार के पालनहार है और भगवान शिव को इस संसार का संहारक माना जाता है ! ये दोनों ही सर्वशक्तिमान है और माना जाता है कि दोनों ही एक दूसरे के परमभक्त है ! लेकिन क्या आपने कभी सुना है कि भगवान विष्णु और भगवान शिव के बीच एक भयंकर युद्ध हुआ था ! बहुत ही कम लोगों को यह बात पता है ! लेकिन क्या आप ये जानते है कि ये युद्ध कितने दिनों तक चला था और इस युद्ध का इस संसार पर क्या प्रभाव पड़ा था ! युद्ध में कौन विजयी हुआ था ? कथा के अनुसार - एक दिन जब माता लक्ष्मी अपने पिता समुद्र देव से मिलने आयी तब उन्होंने देखा उनके पिता काफी चिंतित प्रतीत हो रहे थे ! उन्होंने उनसे उनकी चिंता का कारण पूछा तब समुद्र देव ने कहा - पुत्री मै तुम्हारे लिए अति प्रसन्न हूँ कि तुम्हारा विवाह श्री हरी विष्णु के साथ हुआ है लेकिन तुम्हारी 5 बहने सुवेशा , सुकेशी , समेशी ,सुमित्रा और वेधा भी मन ही मन विष्णु देव को अपना पति मान चुकी है और उनको पाने के लिए कठोर तपस्या कर रही हैं ! यह बात सुनकर माता लक्ष्मी अत्यंत चिंतित हुई और बैकुंठ धाम वापिस आ गयी ! वापिस आकर माता लक्ष्मी ने भगवान विष्णु से कहा  - हे प्राणनाथ आप मुझे विश्वास दिला दीजिये कि आपके सम्पूर्ण ह्रदय में केवल और केवल मेरा स्थान है !

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 भगवान विष्णु ने कहा -  देवी आप इस सत्य से अनभिज्ञ नहीं है कि मेरे ह्रदय के आधे भाग में केवल महादेव है ! मै ये कैसे कह सकता हूँ कि मेरे ह्रदय में केवल आप है ! इस पर देवी लक्ष्मी ने कहा - तो शेष आधा भाग तो केवल मेरे लिये होना चाहिए ! भगवान विष्णु ने कहा - देवी मै जगत का पालनहार हूँ , शेष आधे भाग में मेरे अनेक भक्त जो मुझे प्रिय है , ये संसार जो मुझे प्रिय है , ये सब भी मेरे ह्रदय के आधे भाग में आपके साथ ही रहते है ! देवी लक्ष्मी ने कहा - ये संसार मुझे भी प्रिय है स्वामी ! किन्तु मेरे ह्रदय में केवल आप है ! मुझे आपका प्रेम सम्पूर्ण रूप से ही चाहिए ! यदि ये सम्भव नहीं तो आप मुझे अपने ह्रदय से निकाल दीजिये ! और इधर दूसरी तरफ देवी लक्ष्मी की पाँचों बहनें तपस्या में सफल हुई और भगवान विष्णु ने पाताल लोक आकर उन्हें दर्शन दिये और उन्हें मनवांछित वर मांगने को कहा ! तब उन पाँचों बहनों  ने वर माँगा कि हे भगवन आप हम पाँचों बहनों के पति बन जाये और अपनी सारी स्मृतियो को भूलकर संसार को भुलाकर हमारे साथ ही पाताल लोक में निवास करे ! तब भगवान विष्णु ने उन्हें तथास्तु कहा ! और उनके साथ ही पाताल लोक में निवास करने लगे ! भगवान विष्णु के पाताल लोक चले जाने से संसार का संतुलन बिगड़ने लगा ! माता लक्ष्मी भी बहुत व्याकुल हो गयी और भगवान शिव के पास गयी ! वहां माता पार्वती ने उनसे कहा - हे देवी भगवान विष्णु तो जगत पालक है ! आप उनसे यह आशा कैसे रख सकती है कि उनके सम्पूर्ण ह्रदय में केवल आपका ही स्थान हो ! मेरे पति महादेव के ह्रदय में भी भगवान विष्णु है और उनके समस्त भक्तों के साथ मै भी हूँ और मै इस बात से खुश भी हूँ कि उनके ह्रदय में मेरा एक विशेष स्थान है ! यह बात सुनकर देवी लक्ष्मी को अपनी भूल का अहसास हो गया ! भगवान शिव यह देखकर अत्यंत दुखी हुए और उन्होंने इस संसार के संतुलन को पुन्नः स्थापित करने का और भगवान विष्णु को पाताल लोक से वापिस लेन का निर्णय किया ! भगवान शिव ने वृष्भ अवतार लेकर पाताल लोक पर आक्रमण कर दिया !
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 उन्हें देखकर भगवान विष्णु अत्यंत क्रोधित हुए और महादेव के सामने आ गए और उन दोनों के बीच युद्ध प्रारम्भ हो गया ! भगवान विष्णु ने महादेव पर अनेकों अस्त्रों से प्रहार करना आरम्भ कर दिया ! महादेव भी अपने वृष्भ स्वरूप में सभी प्रहारों को विफल करते गए ! दोनों ही सर्व शक्तिमान थे अतः युद्ध बिलकुल बराबरी का चल रहा था ! ये युद्ध अनेकों वर्षों तक चलता रहा ! किसी को भी इस युद्ध की समाप्ति का उपाय समझ नहीं आ रहा था ! भगवान विष्णु का क्रोध इतना बढ़ गया कि उन्होंने अपने नारायण अस्त्र से महादेव पर प्रहार कर दिया ! महादेव ने भी उन पर पाशुपास्त्र से प्रहार कर दिया ! इस कारण दोनों ही एक दूसरे के अस्त्र में बंध गए ! यह सब देख गणेश जी माता लक्ष्मी की उन पांचों बहनों के पास गए और बोले - भगवान विष्णु और भगवान शिव दोनों ही एक दूसरे के अस्त्रों में बंध गए है यदि भगवान विष्णु की स्मृति वापिस नहीं आयी तो ये दोनों अनंत काल तक ऐसे ही बंधे रहेंगे और इस समस्त सृष्टि का सर्वनाश हो जायेगा ! यह सुनकर पाँचों बहनें बोली कि हे भगवान विष्णु हम आपको हमारे सारे वचनो से मुक्त करती है ! उनके वचनों से मुक्त होते ही भगवान विष्णु की सारी स्मृति वापिस आ गयी और फिर उन्होंने भगवान शिव को अपने अस्त्रों से मुक्त कर दिया ! भगवान शिव ने भी उन्हें मुक्त कर दिया ! दोनों अपने साकार रूप में आ गए और फिर भगवान शिव भगवान विष्णु को लेकर बैकुंठ धाम आ गए !


स्वर्ग जाने का रास्ता , कैसे और कौन जा सकता है स्वर्ग ?

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आज हम आपको बताएंगे कि आखिर किन कर्मों के अनुष्ठान से मनुष्य को श्रेष्ठ लोकों की प्राप्ति होती है !  इस कथन का वर्णन महाभारत ग्रंथ के आदिपर्व में मिलता है ! जब राजा ययति के पुण्य क्षीण हो गए थे तब वे पवित्र लोकों से निकलकर  उस स्थान पर गिरने लगे जिस स्थान पर अष्टक , प्रतर्दन , वसुमान और  शिवि नाम के तपस्वी  तपस्या करते थे ! उन्हें  गिरते देखकर अष्टक ने कहा तुम्हारा रूप इन्द्र के समान है ! तुम्हे गिरते देखकर हम चकित हो रहे है ! तुम जहां तक आ गए हो वही ठहर जाओ और हमे अपनी यह तक आने की बात बताओं ! दुखी और दीन मनुष्यों के लिए ही संत ही परम् आश्रय है ! सौभाग्य वश तुम उन्ही के बीच में आ गए हो ! तुम अपनी सारी कथा हमें बताओं !  तब ययति ने कहा - मैं समस्त प्राणियों का तिरस्कार करने के कारण स्वर्ग से गिर रहा हूँ ! मुझमे अभिमान था ! अभिमान नर्क का मूल कारण है !  जो सद्पुरुष होते है उन्हें दुष्टों का अनुकरण नहीं करना चाहिए ! जो धन धान्य की चिंता छोड़कर अपनी आत्मा का हित सोचता है वही समझदार है ! धन सम्पति को पाकर अभिमान नहीं करना चाहिए ! विद्वान होकर अंहकार नहीं करना चाहिए ! अपने विचार और प्रयत्न की अपेक्षा दैव की गति बलवान है ऐसा सोचकर संताप नहीं करना चाहिए ! दुःख से जले नहीं सुख में फूले नहीं ! दोनों ही स्थितियों में समान रहना चाहिए !

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 अष्टक मैं इस समय मोहित नहीं हूँ मेरे मन में कोई जलन भी नहीं है ! मैं विधाता के विपरीत तो जा नहीं सकता ! मैं यह समझकर संतुष्ट रहता हूँ ! मैं सुख-दुःख दोनों ही स्थितियों को समझता हूँ ! फिर मुझे दुःख हो तो हो कैसे ? अष्टक ऋषि ने पूछा कि - हे राजन आप तो सारे लोकों मेँ रह चुके हो और आत्मज्ञानी और नारद ऋषि आदि के समान वार्तालाप कर रहे है ! तो ये बताइये कि आप किन  - किन लोकों मेँ रह चुके है ! इस पर राजा ययति बोले कि  - मैं सबसे पहले पृथ्वी लोक पर सार्वभौम राजा था ! मैं एक सहस्त्र वर्षो तक महान व स्रवश्रेष्ठ लोकों में रहा ! और फिर 100 योजन लम्बी चौड़ी सहस्त्र दौर युक्त इंद्रपुरी में एक सहस्त्र वर्षों तक रहा ! उसके बाद प्रजापति के लोक में जाकर एक सहस्त्र वर्षों तक रहा !  मैने नंदन वन में स्वर्गीय भोगो को भोगते हुए लाखो वर्षों तक निवास किया ! वहाँ के सुखों में आसक्त हो गया और पुण्य क्षीण होने पर पृथ्वी पर आ रहा हूँ ! जैसे धन का नाश होने पर जगत के सगे संबंधी छोड़ देते है वैसे ही पुण्य क्षीण हो जाने पर इन्द्रादि देवता भी परित्याग कर देते है ! तब अष्टक ने पूछा -  राजन किन कर्मों के अनुष्ठान से मनुष्य को श्रेष्ठ लोको की प्राप्ति होती है ! वे तप से प्राप्त होते है या ज्ञान से ! इस पर ययति ने उत्तर दिया - स्वर्ग के 7 द्वार है ! दान , तप , लज्जा, शम, दम, सरलता और सब पर दया ! अभिमान से तपस्या क्षीण हो जाती है ! जो अपनी विदवता के अभिमान में दूसरों के यश को मिटाना चाहते है उन्हें उत्तम लोको की प्राप्ति नहीं होती !
अभय के 4 साधन है - अग्निहोत्र , मौन , वेदाध्यन और यज्ञ ! यदि अनुचित रीति से इनका अनुष्ठान होता है तो ये भय के कारण बन जाते है ! सम्मानित होने पर सुख नहीं मानना चाहिए और अपमानित होने पर दुःख ! जगत में सद्पुरुष ऐसे लोगों की ही पूजा करते है ! दुष्टों से शिष्ट बुद्धि की चाह निरर्थक है ! मैं दूंगा , मैं यज्ञ करूंगा , मैं जान लूंगा , मेरी यह प्रतिज्ञा है इस तरह की बातें बड़ी भयंकर है ! इनका त्याग ही श्रेष्ठ है ! तब अष्टक ने पूछा - ब्रह्मचारी , गृहस्थ , वानप्रस्थ और सन्यासी किन धर्मों का पालन करने से मृत्यु के बाद सुखी होते है ! इस पर ययति ने कहा - ब्रह्मचारी यदि आचार्य की आज्ञानुसारअध्ययन करता है जिसे गुरु सेवा के लिए आज्ञा नहीं देनी पड़ती ! जो आचार्य से पहले जागता और पीछे सोता है ! जिसका स्वभाव मधुर होता है ! जिसकी अपने मन पर विजय होती है ! जो धैर्यशाली होता है उसे शीघ्र  ही सिद्धि प्राप्त होती है !

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 जो पुरुष धर्मानुकूल धन प्राप्त करके यज्ञ करता है , अतिथियों को खिलाता है , किसी भी वस्तु को उसके बिना दिए नहीं लेता वहीं सच्चा गृहस्थ है ! जो स्वंय उद्योग करके अपनी जीविका चलाता है , पाप नहीं करता , दूसरों को कुछ न कुछ देता ही रहता है और न ही किसी को कष्ट पहुँचाता है , थोड़ा खाता है और नियम से रहता है ऐसा वानप्रस्थ आश्रमी  शीघ्र ही सिद्धि प्राप्त करता है ! जो किसी कला , कौशल , चिकित्सा , कारीगरी आदि से जीविका नहीं चलाता ! समस्त सद्गुणों से युक्त , जितेन्द्रिय और अकेला है ! किसी के घर नहीं रहता ! अनेक जगहों पर विचरण करता हुआ नम्र रहता है वहीं सच्चा संन्यासी है ! इस प्रकार राजा ययति ने अष्टक के सारे प्रश्नों का उत्तर दिया था !