हिन्दू धर्म में पशु बलि देना परम्परा की देन है या फिर हिन्दू धर्म ग्रंथों में पशु बलि को जघन्य अपराध माना गया है ?

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संसार के सभी धर्मों में जीव हिंसा या फिर पशु बलि को पाप माना गया है ! धर्म शास्त्रों के अनुसार जो धर्म प्राणियों की हिंसा का समर्थन करता है वह धर्म कभी कल्याणकारी हो ही नहीं सकता ! ऐसा माना गया है कि आदिकाल में धर्म की रचना संसार में शांति और सदभाव को बढ़ाने के उद्देश्य से की गयी थी ! यदि धर्म का उदेश्य ये ना होता तो उसकी इस संसार में आवयश्कता ही ना रहती ! किन्तु कुछ अज्ञानियों ने अपने फायदे के लिए इसमें पशु बलि जैसी परम्परा को जोड़ दिया , जो हज़ारों वर्षो से चली रही है ! अब यहां सवाल ये उठता है कि क्या हिन्दू धर्म में पशु बलि देना परम्परा की देन है या फिर हिन्दू धर्म ग्रंथों में पशु बलि को जघन्य अपराध माना गया है !

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  आज हम आपको बताएंगे श्री कृष्ण द्वारा या फिर गरुड़ पुराण में बलि को पाप माना गया है या पुण्य ? कुछ लोग हिन्दू धर्म में पशु बलि का समर्थन करते है परन्तु ऐसे लोग क्यों ये नहीं सोचते कि आदिकाल में देवताओं एवं ऋषियों ने जिस विश्व कल्याणकारी धर्म का ढाँचा इतने उच्चकोटि के आदर्शों द्वारा निर्मित किया ,  जिनके पालन भर से मनुष्य आज भी देवता बन सकता है ! उस धर्म के नाम पर वो पशुओं का वध करके हिन्दू धर्म को कितना बदनाम कर रहे है ! इस तरह की परम्परा के नाम पर धर्म को कलंकित करना और लोगों को पाप का भागी बनाना कहां तक उचित है ! देवताओं की आड़ में पशु बलि करने वाले ये क्यों नहीं सोचते कि इस अनुचित कुकर्म के साथ क्या देवी देवता प्रसन्न हो सकते है ? यदि वो ऐसा नहीं सोचते तो वे ये मान ले कि वो उनके साथ-साथ दूसरों को भी अन्धविश्वास की पराकाष्ठा तक पहुंचने में मदद कर रहें है ! यदि आप देवी देवताओं के नाम पर पशु बलि को सही मानते है तो जान लीजिये कि ऐसे लोग जीवन भर मलिन , दरिद्र और तेजहीन ही रहते है ! ऐसे लोग कभी फलते - फूलते नहीं और सुख - शांति सम्पन्न नहीं पाए जाते ! इतना ही नहीं वे निर्दोष जीवों की हत्या के पाप के कारण उनके परिवार के सदस्य अधिकतर रोग , शोक और दुःख - दरिद्रता से घिरे रहते है ! हिन्दू धर्म में ज्यादातर लोग देवी काली के मंदिरों में अथवा भैरव के मठों पर पशु बलि देने का काम करते है ! और ऐसे लोग यह सोचते है कि माता काली पशुओं का मांस खाकर और खून पीकर प्रसन्न हो जाती है ! लेकिन वो ये भूल जाते है कि परमात्मा की आधारशक्ति और संसार के जीवों को उत्त्पन्न और पालन करने वाली माँ क्या अपनी संतानों का रक्तमांस पी और खा सकती है क्योंकि माँ तो माँ होती है ! जिस प्रकार साधरण मानवीय माँ अपने बच्चे को जरा सी चोट लगने पर पीड़ा से छटपटा उठती है और माँ की सारी करुणा प्यारे बच्चे के लिए उमड़ पड़ती है ! तो भला करुणा , दया और प्रेम की मूर्ति जगतजननी माँ काली के प्रति यह विश्वास किस प्रकार किया जा सकता है कि वह अपने उन निर्हिन बच्चों का खून पीकर प्रसन्न हो सकती है ! हिन्दू धर्म ग्रंथों में सभी प्रकार की हिंसा को निषेध माना गया है ! वेदों से लेकर पुराणों तक में कहीं भी पशु बलि का समर्थन  नहीं मिलता ! हिन्दू धर्म ग्रंथों के अनुसार यदि कोई व्यक्ति देवयज्ञ , पितृश्राद्ध और अन्य कल्याणकारी कार्यों में जीव हिंसा करता है तो सीधा वह नरक में जाता है !

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  साथ ही देवी देवताओं के बहाने जो मनुष्य पशु का वध करके अपने संबंधियों सहित मांस खाता है वह पशु के शरीर में जितने रोम होते है उतने वर्षों तक असिपत्र नामक नरक  में रहता है ! इसी तरह जो मनुष्य आत्मा , स्त्री , पुत्र , लक्ष्मी और कोई भी इच्छा से पशुओं की  बलि देता है वह स्वयं ही अपना नाश करता है ! इतना ही नहीं वेद में तो इस बात का भी उल्लेख मिलता है कि भगवान ये चाहते है कि कोई भी मनुष्य  घोड़े और गाये उन जैसे बालों वाले बकरी , ऊँट आदि चौपायों और पक्षियों जैसे दो पगों वाले को भी ना मारे ! इसी प्रकार महाभारत पुराण के शांतिपर्व में यज्ञादि शुभ कर्मों में पशु हिंसा का निषेध करते हुए बलि देने वालों की निंदा की गयी है ! भगवान श्री कृष्ण के अनुसार जो मनुष्य यज्ञ , वृक्ष , भूमि के उद्देश्य से पशु का वध करके उसका मांस खाते है वह धर्म के अनुसार किसी भी दृष्टिकोण से प्रशंसनीय नहीं है ! ऐसे लोगों को पृथ्वी पर सबसे महापापी जीव कहा गया है ! क्योंकि जानवर तो पशु बुद्धि होने के कारण ही एक दूसरे को मारकर कहते है ! लेकिन मानवों में तो करुणा  , दया और प्रेम का भाव पाया जाता है और इसी वजह से तो मनुष्य पृथ्वी लोक के बाकीं प्राणियों से अलग है ! फिर यदि हम भी जानवरों की तरह ही दूसरे जीवों को मारकर खाने लगे तो हममे और जानवरों में क्या अंतर रह जायेगा ! इसीलिए अगर आप भी पशु बलि का समर्थन करते है तो उसे छोड़ दे क्योंकि धर्म शास्त्रों में पशु बलि का कहीं भी उल्लेख नहीं किया गया है ! कुछ अल्पज्ञानियों के कारण सदियों से इस परम्परा को हमारा धर्म ढोता रहा है !



क्या आपने कभी सुना है कि भगवान विष्णु और भगवान शिव के बीच एक भयंकर युद्ध हुआ था ! बहुत ही कम लोगों को यह बात पता है ! लेकिन क्या आप ये जानते है कि ये युद्ध कितने दिनों तक चला था और इस युद्ध का इस संसार पर क्या प्रभाव पड़ा था ! युद्ध में कौन विजयी हुआ था ?

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भगवान विष्णु ही इस संसार के पालनहार है और भगवान शिव को इस संसार का संहारक माना जाता है ! ये दोनों ही सर्वशक्तिमान है और माना जाता है कि दोनों ही एक दूसरे के परमभक्त है ! लेकिन क्या आपने कभी सुना है कि भगवान विष्णु और भगवान शिव के बीच एक भयंकर युद्ध हुआ था ! बहुत ही कम लोगों को यह बात पता है ! लेकिन क्या आप ये जानते है कि ये युद्ध कितने दिनों तक चला था और इस युद्ध का इस संसार पर क्या प्रभाव पड़ा था ! युद्ध में कौन विजयी हुआ था ? कथा के अनुसार - एक दिन जब माता लक्ष्मी अपने पिता समुद्र देव से मिलने आयी तब उन्होंने देखा उनके पिता काफी चिंतित प्रतीत हो रहे थे ! उन्होंने उनसे उनकी चिंता का कारण पूछा तब समुद्र देव ने कहा - पुत्री मै तुम्हारे लिए अति प्रसन्न हूँ कि तुम्हारा विवाह श्री हरी विष्णु के साथ हुआ है लेकिन तुम्हारी 5 बहने सुवेशा , सुकेशी , समेशी ,सुमित्रा और वेधा भी मन ही मन विष्णु देव को अपना पति मान चुकी है और उनको पाने के लिए कठोर तपस्या कर रही हैं ! यह बात सुनकर माता लक्ष्मी अत्यंत चिंतित हुई और बैकुंठ धाम वापिस आ गयी ! वापिस आकर माता लक्ष्मी ने भगवान विष्णु से कहा  - हे प्राणनाथ आप मुझे विश्वास दिला दीजिये कि आपके सम्पूर्ण ह्रदय में केवल और केवल मेरा स्थान है !

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 भगवान विष्णु ने कहा -  देवी आप इस सत्य से अनभिज्ञ नहीं है कि मेरे ह्रदय के आधे भाग में केवल महादेव है ! मै ये कैसे कह सकता हूँ कि मेरे ह्रदय में केवल आप है ! इस पर देवी लक्ष्मी ने कहा - तो शेष आधा भाग तो केवल मेरे लिये होना चाहिए ! भगवान विष्णु ने कहा - देवी मै जगत का पालनहार हूँ , शेष आधे भाग में मेरे अनेक भक्त जो मुझे प्रिय है , ये संसार जो मुझे प्रिय है , ये सब भी मेरे ह्रदय के आधे भाग में आपके साथ ही रहते है ! देवी लक्ष्मी ने कहा - ये संसार मुझे भी प्रिय है स्वामी ! किन्तु मेरे ह्रदय में केवल आप है ! मुझे आपका प्रेम सम्पूर्ण रूप से ही चाहिए ! यदि ये सम्भव नहीं तो आप मुझे अपने ह्रदय से निकाल दीजिये ! और इधर दूसरी तरफ देवी लक्ष्मी की पाँचों बहनें तपस्या में सफल हुई और भगवान विष्णु ने पाताल लोक आकर उन्हें दर्शन दिये और उन्हें मनवांछित वर मांगने को कहा ! तब उन पाँचों बहनों  ने वर माँगा कि हे भगवन आप हम पाँचों बहनों के पति बन जाये और अपनी सारी स्मृतियो को भूलकर संसार को भुलाकर हमारे साथ ही पाताल लोक में निवास करे ! तब भगवान विष्णु ने उन्हें तथास्तु कहा ! और उनके साथ ही पाताल लोक में निवास करने लगे ! भगवान विष्णु के पाताल लोक चले जाने से संसार का संतुलन बिगड़ने लगा ! माता लक्ष्मी भी बहुत व्याकुल हो गयी और भगवान शिव के पास गयी ! वहां माता पार्वती ने उनसे कहा - हे देवी भगवान विष्णु तो जगत पालक है ! आप उनसे यह आशा कैसे रख सकती है कि उनके सम्पूर्ण ह्रदय में केवल आपका ही स्थान हो ! मेरे पति महादेव के ह्रदय में भी भगवान विष्णु है और उनके समस्त भक्तों के साथ मै भी हूँ और मै इस बात से खुश भी हूँ कि उनके ह्रदय में मेरा एक विशेष स्थान है ! यह बात सुनकर देवी लक्ष्मी को अपनी भूल का अहसास हो गया ! भगवान शिव यह देखकर अत्यंत दुखी हुए और उन्होंने इस संसार के संतुलन को पुन्नः स्थापित करने का और भगवान विष्णु को पाताल लोक से वापिस लेन का निर्णय किया ! भगवान शिव ने वृष्भ अवतार लेकर पाताल लोक पर आक्रमण कर दिया !
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 उन्हें देखकर भगवान विष्णु अत्यंत क्रोधित हुए और महादेव के सामने आ गए और उन दोनों के बीच युद्ध प्रारम्भ हो गया ! भगवान विष्णु ने महादेव पर अनेकों अस्त्रों से प्रहार करना आरम्भ कर दिया ! महादेव भी अपने वृष्भ स्वरूप में सभी प्रहारों को विफल करते गए ! दोनों ही सर्व शक्तिमान थे अतः युद्ध बिलकुल बराबरी का चल रहा था ! ये युद्ध अनेकों वर्षों तक चलता रहा ! किसी को भी इस युद्ध की समाप्ति का उपाय समझ नहीं आ रहा था ! भगवान विष्णु का क्रोध इतना बढ़ गया कि उन्होंने अपने नारायण अस्त्र से महादेव पर प्रहार कर दिया ! महादेव ने भी उन पर पाशुपास्त्र से प्रहार कर दिया ! इस कारण दोनों ही एक दूसरे के अस्त्र में बंध गए ! यह सब देख गणेश जी माता लक्ष्मी की उन पांचों बहनों के पास गए और बोले - भगवान विष्णु और भगवान शिव दोनों ही एक दूसरे के अस्त्रों में बंध गए है यदि भगवान विष्णु की स्मृति वापिस नहीं आयी तो ये दोनों अनंत काल तक ऐसे ही बंधे रहेंगे और इस समस्त सृष्टि का सर्वनाश हो जायेगा ! यह सुनकर पाँचों बहनें बोली कि हे भगवान विष्णु हम आपको हमारे सारे वचनो से मुक्त करती है ! उनके वचनों से मुक्त होते ही भगवान विष्णु की सारी स्मृति वापिस आ गयी और फिर उन्होंने भगवान शिव को अपने अस्त्रों से मुक्त कर दिया ! भगवान शिव ने भी उन्हें मुक्त कर दिया ! दोनों अपने साकार रूप में आ गए और फिर भगवान शिव भगवान विष्णु को लेकर बैकुंठ धाम आ गए !


स्वर्ग जाने का रास्ता , कैसे और कौन जा सकता है स्वर्ग ?

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आज हम आपको बताएंगे कि आखिर किन कर्मों के अनुष्ठान से मनुष्य को श्रेष्ठ लोकों की प्राप्ति होती है !  इस कथन का वर्णन महाभारत ग्रंथ के आदिपर्व में मिलता है ! जब राजा ययति के पुण्य क्षीण हो गए थे तब वे पवित्र लोकों से निकलकर  उस स्थान पर गिरने लगे जिस स्थान पर अष्टक , प्रतर्दन , वसुमान और  शिवि नाम के तपस्वी  तपस्या करते थे ! उन्हें  गिरते देखकर अष्टक ने कहा तुम्हारा रूप इन्द्र के समान है ! तुम्हे गिरते देखकर हम चकित हो रहे है ! तुम जहां तक आ गए हो वही ठहर जाओ और हमे अपनी यह तक आने की बात बताओं ! दुखी और दीन मनुष्यों के लिए ही संत ही परम् आश्रय है ! सौभाग्य वश तुम उन्ही के बीच में आ गए हो ! तुम अपनी सारी कथा हमें बताओं !  तब ययति ने कहा - मैं समस्त प्राणियों का तिरस्कार करने के कारण स्वर्ग से गिर रहा हूँ ! मुझमे अभिमान था ! अभिमान नर्क का मूल कारण है !  जो सद्पुरुष होते है उन्हें दुष्टों का अनुकरण नहीं करना चाहिए ! जो धन धान्य की चिंता छोड़कर अपनी आत्मा का हित सोचता है वही समझदार है ! धन सम्पति को पाकर अभिमान नहीं करना चाहिए ! विद्वान होकर अंहकार नहीं करना चाहिए ! अपने विचार और प्रयत्न की अपेक्षा दैव की गति बलवान है ऐसा सोचकर संताप नहीं करना चाहिए ! दुःख से जले नहीं सुख में फूले नहीं ! दोनों ही स्थितियों में समान रहना चाहिए !

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 अष्टक मैं इस समय मोहित नहीं हूँ मेरे मन में कोई जलन भी नहीं है ! मैं विधाता के विपरीत तो जा नहीं सकता ! मैं यह समझकर संतुष्ट रहता हूँ ! मैं सुख-दुःख दोनों ही स्थितियों को समझता हूँ ! फिर मुझे दुःख हो तो हो कैसे ? अष्टक ऋषि ने पूछा कि - हे राजन आप तो सारे लोकों मेँ रह चुके हो और आत्मज्ञानी और नारद ऋषि आदि के समान वार्तालाप कर रहे है ! तो ये बताइये कि आप किन  - किन लोकों मेँ रह चुके है ! इस पर राजा ययति बोले कि  - मैं सबसे पहले पृथ्वी लोक पर सार्वभौम राजा था ! मैं एक सहस्त्र वर्षो तक महान व स्रवश्रेष्ठ लोकों में रहा ! और फिर 100 योजन लम्बी चौड़ी सहस्त्र दौर युक्त इंद्रपुरी में एक सहस्त्र वर्षों तक रहा ! उसके बाद प्रजापति के लोक में जाकर एक सहस्त्र वर्षों तक रहा !  मैने नंदन वन में स्वर्गीय भोगो को भोगते हुए लाखो वर्षों तक निवास किया ! वहाँ के सुखों में आसक्त हो गया और पुण्य क्षीण होने पर पृथ्वी पर आ रहा हूँ ! जैसे धन का नाश होने पर जगत के सगे संबंधी छोड़ देते है वैसे ही पुण्य क्षीण हो जाने पर इन्द्रादि देवता भी परित्याग कर देते है ! तब अष्टक ने पूछा -  राजन किन कर्मों के अनुष्ठान से मनुष्य को श्रेष्ठ लोको की प्राप्ति होती है ! वे तप से प्राप्त होते है या ज्ञान से ! इस पर ययति ने उत्तर दिया - स्वर्ग के 7 द्वार है ! दान , तप , लज्जा, शम, दम, सरलता और सब पर दया ! अभिमान से तपस्या क्षीण हो जाती है ! जो अपनी विदवता के अभिमान में दूसरों के यश को मिटाना चाहते है उन्हें उत्तम लोको की प्राप्ति नहीं होती !
अभय के 4 साधन है - अग्निहोत्र , मौन , वेदाध्यन और यज्ञ ! यदि अनुचित रीति से इनका अनुष्ठान होता है तो ये भय के कारण बन जाते है ! सम्मानित होने पर सुख नहीं मानना चाहिए और अपमानित होने पर दुःख ! जगत में सद्पुरुष ऐसे लोगों की ही पूजा करते है ! दुष्टों से शिष्ट बुद्धि की चाह निरर्थक है ! मैं दूंगा , मैं यज्ञ करूंगा , मैं जान लूंगा , मेरी यह प्रतिज्ञा है इस तरह की बातें बड़ी भयंकर है ! इनका त्याग ही श्रेष्ठ है ! तब अष्टक ने पूछा - ब्रह्मचारी , गृहस्थ , वानप्रस्थ और सन्यासी किन धर्मों का पालन करने से मृत्यु के बाद सुखी होते है ! इस पर ययति ने कहा - ब्रह्मचारी यदि आचार्य की आज्ञानुसारअध्ययन करता है जिसे गुरु सेवा के लिए आज्ञा नहीं देनी पड़ती ! जो आचार्य से पहले जागता और पीछे सोता है ! जिसका स्वभाव मधुर होता है ! जिसकी अपने मन पर विजय होती है ! जो धैर्यशाली होता है उसे शीघ्र  ही सिद्धि प्राप्त होती है !

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 जो पुरुष धर्मानुकूल धन प्राप्त करके यज्ञ करता है , अतिथियों को खिलाता है , किसी भी वस्तु को उसके बिना दिए नहीं लेता वहीं सच्चा गृहस्थ है ! जो स्वंय उद्योग करके अपनी जीविका चलाता है , पाप नहीं करता , दूसरों को कुछ न कुछ देता ही रहता है और न ही किसी को कष्ट पहुँचाता है , थोड़ा खाता है और नियम से रहता है ऐसा वानप्रस्थ आश्रमी  शीघ्र ही सिद्धि प्राप्त करता है ! जो किसी कला , कौशल , चिकित्सा , कारीगरी आदि से जीविका नहीं चलाता ! समस्त सद्गुणों से युक्त , जितेन्द्रिय और अकेला है ! किसी के घर नहीं रहता ! अनेक जगहों पर विचरण करता हुआ नम्र रहता है वहीं सच्चा संन्यासी है ! इस प्रकार राजा ययति ने अष्टक के सारे प्रश्नों का उत्तर दिया था !

कोई इन्हे भोले बाबा कहता है , तो कोई शिव और तो कोई शंकर ! देवों के देव महादेव का ध्यान कई नामों से किया जाता है ! लेकिन आपने कभी ये जानने की कोशिश की है आखिर वास्तविकता में शिव कौन है ?

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कोई इन्हे भोले बाबा कहता है , तो कोई शिव और तो कोई शंकर ! देवों के देव महादेव का ध्यान कई नामों से किया जाता है ! लेकिन आपने कभी ये जानने की कोशिश की है आखिर वास्तविकता में शिव कौन है ? नहीं की तो कोई बात नहीं ! आइये आज हम आपको बताते है कि वास्तविकता में भोले नाथ का स्वरूप क्या है और शिव का वास्तविक अर्थ क्या है ! भारतीय आध्यत्मिक संस्कृति के सबसे अहम देव महादेव शिव के बारे में कई गाथाएं सुनने को मिलती है ! शिव का एक गहरा अर्थ है जो केवल उन्ही के लिए उपलब्ध जो सत्य के खोजी है ! दुनिया में लोग  जिसे भी दिव्य मानते है उसका वर्णन हमेशा अच्छे रूप में ही करते है ! लेकिन जब आप शिव पुराण को पूरा पढ़ेंगे तो आपको उसमे कहीं भी शिव का उल्लेख अच्छे या बुरे तौर पर नहीं मिलेगा ! उनका जिक्र सुंदर मूर्ति के तौर पर हुआ है ! जिसका अर्थ सबसे सुंदर है ! शिव ही सत्य है !  लेकिन इसी के साथ शिव से ज्यादा भयावह भी और कोई नहीं हो सकता क्योंकि शिव को महाकाल भी कहा जाता है जब वे अंत में इस सृष्टि का विनाश करते है ! आज हम आपको बताते है कि शिव कौन है ? शिव संस्कृत भाषा का शब्द है  जिसका अर्थ है कल्याणकारी या शुभकारी ! यजुर्वेद में शिव को शांति दाता बताया गया है ! 'शि' का अर्थ है पापों का नाश करने वाला और 'व' का अर्थ है देने वाला यानि दाता ! 'शिवोम' मंत्र में एक अंश उसे ऊर्जा देता है तो दूसरा उसे संतुलित यानि नियंत्रित करता है ! दिशाहीन ऊर्जा का कोई लाभ नहीं है ! वह विनाशकारी हो सकती है इसलिए जब हम शिव कहते है तो हम ऊर्जा को एक खास तरिके से एक खास दिशा में ले जाने की बात करते है ! क्या है शिवलिंग ? शिव की दो काया है ! एक वह है जो स्थूल रूप से व्यक्त किया जाए दूसरी वह जो सूक्ष्म रुपी लिंग के रूप में की जाती है ! शिव की सबसे ज्यादा पूजा लिंग यानि शिव लिंग के रूप में की जाती है ! संस्कृत में लिंग शब्द का अर्थ होता है - चिन्ह ! इसी अर्थ में यह शिवलिंग के लिए प्रयोग होता है ! अर्थात शिव का चिन्ह यानि शिवलिंग !
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शिव शंकर महादेव - शिव का नाम शंकर के साथ जोड़ा जाता है ! लोग कहते है शिव शंकर भोलेनाथ ! इस तरह अनजाने में ही लोग शिव और शंकर को एक ही शक्ति के दो नाम बताते है ! असल में दोनों की प्रतिमाएं अलग-अलग आकृति की है ! शंकर को हमेशा तपस्वी रूप में दिखाया जाता है ! कई जगह तो शंकर को शिवलिंग का ध्यान करते हुए भी दिखाया जाता है ! शिव ने सृष्टि की स्थापना , पालना और  विनाश के लिए ब्रह्मा , विष्णु और महेश यानि शंकर नामक तीन सूक्ष्म देवताओं की रचना की है ! इस तरह शिव ब्रह्माण्ड के रचियता हुए और शंकर उनकी एक रचना ! भगवान शिव को इसीलिए महादेव भी कहा जाता है ! इसके अलावा शिव को 108 दूसरे नामों से जाना और पूजा जाता है !
अर्धनारेश्वर  - शिव को अर्धनारेश्वर भी कहा गया है ! इसका अर्थ ये नहीं है कि शिव आधे पुरुष है या उनमे सम्पूर्णता नहीं ! बल्कि वे शिव ही है जो आधे होते हुए भी पूरे है ! इस सृष्टि के आधार और रचियता यानि स्त्री- पुरुष शिव और शक्ति के ही स्वरूप है ! दोनों ही एक दूसरे के पूरक है ! नारी प्रकृति है और नर पुरुष ! प्रकृति के बिना पुरुष और पुरुष के बिना प्रकृति अधूरी है ! दोनों का एक अटूट संबंध है ! अर्धनारेश्वर शिव इसी शक्ति के प्रतीक है ! आधुनिक समय में स्त्री पुरुष की बराबरी पर इतना जोर है उसे शिव के इस स्वरूप में बखूबी देखा और समझा जा सकता है ! ये बताया जाता है कि शिव जब शक्ति युक्त होता है तभी समर्थ होता है ! शक्ति के बिना शिव शिव न होकर शव रह जाता है !
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नीलकंठ क्यों कहा जाता है ? -  अमृत पाने की इच्छा लिए जब देव और दानव मंथन कर रहे थे तभी समुद्र से कालकूट नामक भयंकर विष निकला ! उस विष की अग्नि से दसों दिशाएं जलने लगी ! देव , दानव , गंधर्व ,ऋषि मुनि ,मनुष्य ,  समस्त जीव हाहाकार करने लगे और उस विष की गर्मी से जलने लगे ! देवताओं की प्रार्थना पर भगवान शिव विषपान करने के लिए तैयार हो गए ! उन्होंने भयंकर विष को हथेलियों में भरा और पी गए ! भगवान शिव के विषपान करने के बाद शक्ति रुपी माता पार्वती ने उस विष को शिवजी के गले में रोक कर  उसका प्रभाव खत्म कर दिया  ! विष के कारण भगवान शिव का कंठ नीला हो गया और वे संसार में नीलकंठ के नाम से प्रसिद्ध हुए !
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भोले बाबा  -  शिव पुराण में एक शिकारी की कथा है ! एक बार उस शिकारी को जंगल में देर हो गयी ! तब उसने एक बेल वृक्ष पर रात बिताने का निश्चय किया ! रात को जागने के लिए उसने एक तरकीब सोची वो उस बेल वृक्ष का  एक - एक पत्ता तोड़कर नीचे डालने लगा !  बेल वृक्ष के ठीक नीचे एक शिवलिंग था ! जैसा कि आप सब जानते है कि शिव को बेल पत्र बहुत प्रिय है ! शिवलिंग पर प्रिय बेल पत्र को चढ़ते देख भगवान शिव प्रसन्न हो गए ! जबकि शिकारी को अपने इस शुभ काम का अहसास ही नहीं था ! भगवान शिव ने शिकारी को दर्शन देकर उसकी मनोकामना पूर्ण होने का वरदान दिया ! इसी भोलेपन के कारण भगवान शिव को भोलेबाबा भी कहा जाता है ! इस कथा से ये मालूम होता है कि भगवान शिव बहुत ही आसानी से प्रसन्न हो जाते है ! शिव महिमा की ऐसी ही कई कथाओं का वर्णन हमारे पुराणों में मिलता है !

रामायण के बाली और सुग्रीव को तो सभी जानते है ,पर क्या आप जानते है कैसे आधा आधा करके हुवा था बाली और सुग्रीव का जन्म ?

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त्रेतायुग को भगवान राम का युग कहा जाता है ! जब श्री राम को 14 साल का वनवास हुआ ,उस दौरान उन्होंने कई कष्ट भोगे ! साथ ही कई लोगों से अपनापन और प्रेम प्राप्त किया !  शबरी , हनुमान जी , सुग्रीव , जटायु , नल, नील , विभीषण जैसे नामों की शृंखला बहुत लम्बी है ! सुग्रीव बहुत ही शक्तिशाली बानर था ! लेकिन सुग्रीव का भाई बाली भी उसी के समान बहुत शक्तिशाली था ! लेकिन क्या आप सब जानते है कि बाली और सुग्रीव का जन्म कैसे हुआ ?   आज हम आपको बाली और सुग्रीव के जन्म से संबंधित एक बहुत ही रोचक और महत्वपूर्ण  जानकारी लेकर आये है ! दोस्तों ! शायद आप में से कुछ ही लोग ये जानते होंगे कि बाली और सुग्रीव का जन्म अपनी माँ के गर्भ से नहीं अपितु पिता के गर्भ से हुआ था ! शास्त्रों में वर्णित कथा के अनुसार ऋक्षराज नाम का एक बड़ा शक्तिशाली बानर ऋष्यमूक पर्वत पर रहता था ! वह अपने बल के घमंड में इधर उधर विचरण करता रहता था ! उस पर्वत के पास में एक बड़ा ही सुंदर सरोवर था , लेकिन उस सरोवर की यह विशेषता थी कि जो कोई उसमे स्नान करता , वह एक अत्यंत सुंदर स्त्री बन जाता ! ऋक्षराज को यह बात मालूम नहीं थी ! एक दिन वह स्नान करने के लिए उस सरोवर में गया और जैसे ही स्नान करके बाहर आया तो उसने देखा कि उसका शरीर बहुत सुंदर स्त्री के रूप में परिवर्तित हो चुका है ! यह देखकर उसे बहुत शर्म महसूस हुई , परन्तु वह क्या कर सकता था ? वो वही पर ही बैठ गया ! इतने में देवराज इन्द्र की दृष्टि उस स्त्री पर पड़ी ! उस सुंदर स्त्री को देखते ही उनका तेज स्त्री के रूप में परिवर्तित ऋक्षराज के बालों पर गिरा ! उस तेज की दिव्यता के कारण एक बालक का जन्म हुआ , जिसका नाम बाली पड़ा !
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 ऋक्षराज विचारों में उलझा हुआ पूरी रात उसी स्थान पर बैठा रहा ! सूर्योदय के समय जब सूर्यदेव आकाश मंडल में उदित हुए तो उनकी दृष्टि अप्सरा के समान सुंदरी ऋक्षराज पर गयी ! सूर्यदेव ऋक्षराज पर मोहित हो गए और उनका तेज ऋक्षराज की ग्रीवा पर गिरा जिससे एक और बालक का जन्म हुआ जिसका नाम सुग्रीव हुआ ! ऋक्षराज के पास ऐसा कोई उपाय नहीं था जिससे वो अपने पुराने रूप में वापिस आ सके ! तब स्त्री बना ऋक्षराज गौतम ऋषि के आश्रम में गया और दोनों पुत्रों को उन्हें सौंप दिया और उनसे अपने बानर रूप में वापिस आने का उपाय पूछा ! तब ऋषि गौतम ने उसे ब्रह्माजी की आराधना करने को कहा ! अपने दोनों पुत्रों को गौतम ऋषि को सौंप के ऋक्षराज ब्रह्मा जी की कठिन तपस्या करने लगा ! कुछ वर्षों के बाद उसकी कठिन तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्म देव ने उसे दर्शन दिए ! ब्रह्म देव को अपने सामने पाकर उसने ब्रह्म देव को प्रणाम किया और वापिस अपने पुराने शरीर में आने का वरदान माँगा ! तब ब्रह्मा जी ने उसे वापिस उसी सरोवर में स्नान करने को कहा और कहा कि मेरे आशीर्वाद से तुम अपना बानर रूप फिर से प्राप्त कर लोगे ! तब स्त्री बना ऋक्षराज ने जब उस सरोवर में स्नान किया तो वह पुन्नः अपने बानर रूप में लौट आया ! साथ ही ब्रह्माजी ने उस सरोवर का जल सदैव के लिए सूखा दिया !  वापिस अपने बानर रूप में आकर ऋक्षराज गौतम ऋषि के आश्रम में पहुंचा और अपने पुत्रों के साथ ऋष्यमूक पर्वत पर रहने लगा ! बाली और सुग्रीव दोनों भाई देखने में एक जैसे ही थे !
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 दोनों में एक दूसरे के बराबर ही बल था ! अपने पिता की मृत्यु के पश्चात बाली और सुग्रीव दोनों भाइयों ने किष्किंधा नाम का एक नगर बसाया और वही पर अपना साम्राज्य स्थापित किया और जैसा कि आप सब लोग जानते है कि बाली को वरदान प्राप्त था कि जो भी उसके सामने आएगा , उसका आधा बल बाली को प्राप्त हो जायेगा ! इस कारण वह बहुत ही घमंडी हो गया था ! जब अपने भाई सुग्रीव की पत्नी को बंदी बनाकर तथा सुग्रीव को किष्किंधा से निकालकर वह बहुत अनाचारी हो गया था ! बाद में श्री राम के हाथों उसकी मृत्यु हुई थी !

मेघनाथ ने इंद्र को कई बार युद्ध में हराया था , लेकिन क्या आप जानते है मेघनाथ ने कब कब और क्यों किया इंद्र से युद्ध ?

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हिन्दू धर्म में रामायण को एक पवित्र ग्रंथ माना गया है ! जिसमे राम ,सीता ,लक्ष्मण , हनुमान और रावण के अतिरिक्त एक और पात्र मेघनाथ का वर्णन मिलता है ! जिसकी भूमिका को चाहकर भी नहीं भुलाया जा सकता ! मेघनाथ रावण का ज्येष्ठ पुत्र था और वह अपने पिता के समान ही शक्तिशाली भी था ! मेघनाथ ने इन्द्र को हराकर तीनों लोकों पर अपना आधिपत्य स्थापित किया था इसलिए उसे इंद्रजीत के नाम से भी जाना जाता है ! लेकिन क्या आपको पता है कि मेघनाथ ने इन्द्र से क्यों युद्ध किया ?और वह युद्ध कितना भयानक था ! ये तो हम सभी जानते है कि रावण ने अपने बाहुबल से तीनों लोकों पर विजय प्राप्त की थी और वह शक्तिशाली होने के साथ-साथ एक महाज्ञानी भी था !  रावण ने त्रिलोक के विजय होने के बाद मयासुर की पुत्री मंदोदरी से विवाह किया था ! विवाह के कुछ दिन पश्चात रावण के मन में ये चाहत हुई कि उसे मंदोदरी से ऐसा पुत्र प्राप्त हो जो उससे भी अधिक शक्तिशाली हो इसलिए जब मंदोदरी ने गर्भ धारण किया और पुत्र के जन्म लेने का समय आया तो उसने सभी ग्रहों को अपने पुत्र के जन्म कुंडली के 11 वे स्थान पर बैठा दिया !
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 परन्तु रावण की अभिलाषा से परिचित शनि देव 11 वे स्थान से 12 वे स्थान पर आ गए ! जिससे रावण को उसकी इच्छा के अनुसार पुत्र प्राप्त नहीं हो सका ! अब वो समय आ गया था जब मंदोदरी ने एक बालक को जन्म दिया ! वाल्मीकि रामायण में वर्णित कथा के अनुसार जब रावण और मंदोदरी का ज्येष्ठ पुत्र पैदा हुआ तो उसके रोने की आवाज बिजली के कड़कने जैसी थी इसी कारण रावण ने अपने बेटे का नाम मेघनाद रखा ! कुछ बड़ा होने पर मेघनाद ने असुरों के गुरु शुकराचार्य से शिक्षा - दीक्षा ग्रहण की ! ऐसा माना जाता है कि 12 वर्ष की आयु  में ही मेघनाद ने अपनी  कुल देवी निकुंभला के मंदिर में अपने गुरुवर से दीक्षा लेकर कई सिद्धिया प्राप्त कर ली थी ! परन्तु इतनी सिद्धिया प्राप्त करने के बाद भी मेघनाद को संतुष्टि नहीं मिली और वह और शक्ति प्राप्त करने के लिए देवादिदेव महादेव की कठिन तपस्या करने लगा ! कई वर्ष की कठिन तपस्या के बाद महादेव प्रसन्न हुए और मेघनाद के समक्ष प्रकट होकर बोले - हे वत्स ! मैं तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हूँ और वरदान स्वरूप तुम्हे अपनी अमोघ शक्ति प्रदान करता हूँ ! इसके बाद मेघनाद लंका की ओर वापिस लौट आया और उसने लंका पहुंचकर सबसे पहले ये बात अपने पिताश्री रावण को बताई ! उसने अपने पिता से कहा कि - पिताश्री मेरी तपस्या सफल हुई ! मेरी भक्ति से प्रसन्न होकर महादेव ने मुझे अपनी अमोघ शक्ति प्रदान की है ! मैं अब अजय हो गया हूँ ! यह सुन रावण अत्यंत प्रसन्न हुआ और उसने मेघनाद की खूब प्रशंशा की ! फिर मेघनाद ने रावण से कहा कि - हे पिताश्री मैं महादेव द्वारा दी हुई अमोघ शक्ति का प्रयोग करना चाहता हूँ और इसलिए मैं देवलोक पर आक्रमण करके देवराज इन्द्र से युद्ध करना चाहता हूँ ! अपने पुत्र के मुख से ऐसी वीरता वाली बातें सुनकर रावण जोर-जोर से हंसने लगा और अपने पुत्र को विजयी होने का आशीर्वाद देते हुए बोला - जाओ पुत्र और साथ में हमारा पुष्पक विमान भी ले जाओ ! ततपश्चात अपने पिता से आशीर्वाद लेकर मेघनाद पुष्पक विमान में सवार होकर देवराज इन्द्र से युद्ध के लिए निकल पड़ा ! फिर देवलोक पहुंचकर उसने सर्वप्रथम इन्द्र की सभा पर आक्रमण किया ! जिससे इन्द्र की सभा में चारों और धुंद छा गया और सभी देवतागण घबरा गए और वे सभी युद्ध के लिए तैयार हो गए ! तभी मेघनाद देवराज इन्द्र से बोला - हे देवेंद्र ! मैं तुमसे युद्ध करना चाहता हूँ और यदि तुम कायर नहीं हो तो आकर मुझसे युद्ध करों !
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 तब देवराज इन्द्र ने कहा कि मेघनाद तुम्हारी युद्ध की ये अभिलाषा उचित नहीं है ! ऐसा ना ही कि तुम्हारी महत्वकांक्षा के कारण तुम्हारे साथ - साथ तुम्हारे अपनों का भी विनाश हो जाए ! देवराज इन्द्र की बातें सुनकर मेघनाद क्रोधित हो उठा और उसने इन्द्र से कहा - इन्द्र मैं तीनों लोको को दिखा देना चाहता ही कि मैं अजय हूँ ! तुम भी अपने आपको अजय समझते हो ना आज मैं तुमको पराजित करके त्रिलोक को अपनी शक्ति दिखाना चाहता हूँ ! इतना कहकर मेघनाद ने देवराज इन्द्र पर बाण चला दिया ! जवाब में देवराज इन्द्र ने भी बाणों से मेघनाद पर प्रहार किया ! परन्तु रास्ते में ही दोनों के बाण आपस में टकराकर भस्म हो गए ! उसके बाद मेघनाद और देवराज में महाप्रलयकारी युद्ध शुरू हो गया और यह युद्ध काफी देर तक चला ! लेकिन किसी की भी पराजय होती नहीं दिख रही थी ! यह देख देवराज इन्द्र ने एक दिव्य बाण से मेघनाद पर प्रहार किया ! वह बाण मेघनाद की नाभि में जाकर लगा ! जिसकी वजह से वो लड़खड़ागया ! खुद को संभालते हुए मेघनाद ने महादेव की दी हुई अमोघ शक्ति का आवाहन किया और बोला - हे देवादिदेव महादेव , मैं आपकी दी हुई अमोघ शक्ति का प्रयोग करने जा रहा हूँ ! कृपा मुझे आशीर्वाद दीजिये और इतना कहकर उसने एक मंत्र का उच्चारण प्रारंन्भ किया ! कुछ देर बाद महादेव की दी हुई अमोघ शक्ति मेघनाद के हाथ में प्रकट हुई ! फिर उसने उसे देवराज इन्द्र पर छोड़ दिया ! उधर जब देवराज इन्द्र को ये ज्ञात हुआ कि मेघनाद ने उन पर महादेव की अमोघ शक्ति चलाई है वे दोनों हाथ जोड़कर खड़े हो गए ! वे चाहते तो उस शक्ति का जवाब हेतु बाण भी चला सकते थे परन्तु वो महादेव का अपमान नहीं करना चाहते थे ! जब वो शक्ति देवराज इन्द्र को आकर लगी तो वे अदृश्य रूप से बंध गए ! उधर स्वर्ग लोक में देवर्षि नारद सारी घटना को देख रहे थे ! इन्द्र को पराजित होता देख उन्होंने परमपिता ब्रह्मा जी से कहा - हे परमपिता ! मेघनाद ने देवराज इन्द्र को बंदी बना लिया है और वह उन्हें लंका ले जाना चाहता है ! उधर मेघनाद इन्द्र को लेकर लंका की ओर प्रस्थान करने लगा ! तभी युद्ध भूमि में ब्रह्मा जी प्रकट हुए ओर मेघनाद से बोले - रुक जाओ वत्स मेघनाद ! मैं तुम्हारे सामर्थ्य और शक्ति से अत्यंत प्रसन्न हूँ ! तीनों लोकों पर अब तुम्हारा अधिकार हो चुका है ! इन्द्र पर विजय प्राप्त करके तुम अब इंद्रजीत हो गए हो ! इसलिए आज से तुम इंद्रजीत के नाम से जाने जाओगे !
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 अब तुम देवराज इन्द्र को बंधन से मुक्त कर दो ! इसके बदले जो कुछ भी तुम चाहोगे वो तुम्हे मिल जायेगा ! यह सुनकर मेघनाद ने ब्रह्मा जी से कहा - हे ब्रह्मदेव , यदि आप इन्द्र को मुक्त करना चाहते है तो मुझे पहले अमृत्व का वरदान दीजिये ! तब ब्रह्मदेव ने कहा - वत्स ! ये सम्भव नहीं है , प्रथ्वी पर जन्म लेने वाले हर प्राणी की मृत्यु निश्चित है इसलिए तुम कुछ और मांग लो ! फिर मेघनाद ने कहा कि - हे ब्रह्मदेव ! मुझे यह वरदान दीजिये जब भी मैं शत्रु का सामना करने जाऊँ और अग्नि को मंत्र के साथ आहूति दूँ तो अग्नि कुंड से घोड़ों से जूथा रथ प्रकट हो और जब तक मैं उस रथ पर बैठ कर युद्ध करूं किसी के भी हाथों मारा ना जाऊँ ! यह सुनकर ब्रह्माजी ने तथास्तु कहा ! फिर मेघनाद ने अपनी अमोघ शक्ति वापिस ले ली और देवराज इन्द्र को बंधन से मुक्त कर दिया


क्या आप जानते है कि भगवान श्री कृष्ण को ये नीला रंग कैसे प्राप्त हुआ और क्यों उन्हें उनकी मूर्तियों एवं तस्वीरों में नीले शरीर के साथ दर्शाया जाता है

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हिन्दू धर्म में भगवान श्री कृष्ण को नारायण का अवतार माना जाता है ! लोग उन्हें प्रेम के प्रतीक के रूप में भी पूजते है ! शास्त्रों में कहा गया है कि जो लोग श्री कृष्ण को सच्ची श्रद्धा से पूजते है उनके जन्म जन्मान्तर के पाप नष्ट हो जाते है और वे मोक्ष को प्राप्त होते है ! आपने देखा होगा कि भगवान श्री कृष्ण को अक्सर तस्वीरों में नीले रंग में दर्शाया जाता है ! परन्तु क्या आप जानते है कि भगवान श्री कृष्ण को ये नीला रंग कैसे प्राप्त हुआ और क्यों उन्हें उनकी मूर्तियों एवं तस्वीरों में नीले शरीर के साथ दर्शाया जाता है ! आज हम आपको बताएंगे कि भगवान श्री कृष्ण का रंग नीला क्यों है ? पौराणिक कथाओं के अनुसार श्री कृष्ण के नीले रंग को प्राप्त करने के पीछे ये कहा जाता है कि श्री कृष्ण को भगवान विष्णु का अवतार माना गया है भगवान विष्णु तो सदा ही गहरे सागर में निवास करते है ! उनके सागर में निवास करने की वजह से ही भगवान श्री कृष्ण का रंग नीला है ! हिन्दू धर्म में जिन लोगों के पास बुराइयों से लड़ने की क्षमता होती है उनके चरित्र को नीले रंग का माना जाता है !
 साथ ही नीले रंग को अनन्तता  का प्रतीक भी माना गया है !इसका अर्थ ये है कि इनका अस्तित्व कभी समाप्त नहीं होने वाला है !
 एक अन्य मान्यता के अनुसार बचपन में पूतना नामक राक्षशी श्री कृष्ण की हत्या करने आयी थी और उसी राक्षशी ने उन्हें विष युक्त दूध पिलाया लेकिन देव अवतार होने की वजह से श्री कृष्ण की मृत्यु नहीं हो पायी और विष पान के कारण श्री कृष्ण का रंग नीला हो गया !
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 यह भी कहा जाता है कि यमुना नदी में कालिया नाम का एक नाग रहता था ! जिसके कारण गोकुल के सभी निवासी परेशान थें ! अतः जब श्री कृष्ण कालिया नाग से लड़ने गए तो युद्ध के समय उसके विष के कारण भगवान कृष्ण का रंग नीला हो गया ! इन सबके अलावा विद्वानों का ये भी मानना है कि भगवान श्री कृष्ण के नीला होने का कारण उनका आध्यात्मिक स्वरूप है !
 श्रीमद भागवतगीता के अनुसार भगवान श्री कृष्ण का नीला रूप सिर्फ उन्हें देखने को मिलता है जो कृष्ण के सच्चे भक्त होते है !
 भगवान श्री कृष्ण के नीले रंग के पीछे एक मान्यता ये भी है कि प्रकृति का अधिकांश भाग नीला है जैसे - आकाश, सागर और झरने सभी नीले रंग के दृष्टिगोचर होते है ! अतः प्रकृति के प्रतीक होने की वजह से इनका रंग नीला है !
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 यह भी माना जाता है कि भगवान श्री कृष्ण का जन्म सभी बुराइओं का अंत करने के लिए हुआ था ! इसलिए श्री कृष्ण ने एक प्रतीक के रूप में नीला रंग धारण किया !
 ब्रह्मसंहिता के अनुसार श्री कृष्ण के अस्तित्व में नीले रंग के छोटे-छोटे बादलों का समावेश है इसलिए श्री कृष्ण का रंग नीला है !


शिवजी को सब जानते है लेकिन क्या आप जानते है शिव के गले में लटका सांप कौन है ? क्यों पहनते है शिव सांपो की माला ?

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देवों के देव महादेव यानि भगवान शिव बड़े ही निराले है ! उनके अस्त्र , शस्त्र , वस्त्र और आभूषण भी सभी देवों से अलग है ! जहां एक ओर त्रिशूल धारी भगवान शिव वस्त्र के रूप में बाघ की छाल पहनते है वहीं सिर पर चन्द्रमा और गले में नाग की माला धारण करते है ! आज हम आपको भगवान शिव के गले में लिपटे रहने वाले नाग के बारे में बताने जा रहे है!  जिससे आप जानेंगे कि वो नाग कौन है और वो भगवान शिव के गले में कैसे आया ! भगवान शिव के गले में लिपटे रहने वाले नाग नागराज वासुकि है ! नागराज वासुकि ही शिव जी के गले में हर समय लिपटे रहते है ! नागराज वासुकि ऋषि कश्यप के दूसरे पुत्र थे ! कथा के अनुसार दक्ष प्रजापति की दो पुत्रियां थी - वनिता और कद्रू ! इनका विवाह ऋषि कश्यप से हुआ था ! विवाह के कुछ दिन बाद ऋषि कश्यप ने अपनी दोनों पत्नियों की सेवा से प्रसन्न होकर एक वरदान मांगने को कहा ! जिसके बाद कद्रू ने ऋषि कश्यप से अपने लिए एक हज़ार पुत्रों का वरदान माँगा ! जबकि वनिता ने अपने लिए सिर्फ दो पुत्रों का वरदान माँगा ! पर शर्त ये रखी कि मेरे दोनों पुत्र कद्रू के हज़ार पुत्रों से शक्तिशाली हो ! ऋषि कश्यप ने तथास्तु कहकर उन्हें इच्छापूर्ति का वरदान दे दिया !

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 कुछ समय बाद ऋषि कश्यप के वरदान के अनुसार कद्रू ने हज़ार पुत्रों को  जन्म दिया ! जिनमे सबसे पहले और सबसे बड़े पुत्र के रूप में शेषनाग पैदा हुए ! शेषनाग के बारे में ऐसा माना जाता है कि उनके हज़ार मस्तक है जिनका कोई अंत नहीं ! इसीलिए उन्हें अनंत भी कहा जाता है ! साथ ही ये भी माना जाता है कि पृथ्वी पर सब जीव-जंतु के अंत होने के बाद भी शेषनाग मौजूद रहेंगे ! भगवान विष्णु की शैय्या शेषनाग के बारे में ये भी कहा जाता है कि उनके ही फन पर ये धरती टिकी हुई है ! ऐसा करने का वरदान शेषनाग को ब्रह्मा जी ने दिया था !  नागपुत्रों में सबसे बड़ा होने के कारण शेषनाग नागलोक के राजा बने ! लेकिन ब्रह्मा जी के वरदान के बाद धरती के नीचे जाने से पहले उन्होंने अपने छोटे भाई वासुकि को नागलोक का राजा बना दिया ! वासुकि नाग कद्रू और ऋषि कश्यप के दूसरे सबसे बड़े पुत्र थे ! वे भी शेषनाग के जितना तो नहीं लेकिन बड़े ही पराक्रमी और शक्तिशाली थे ! ऐसा माना जाता है कि वासुकि नाग ने ही बारिश और यमुना के तूफान से श्री कृष्ण और उनके पिता वासुदेव की रक्षा की थी जब वो अपने पुत्र श्री कृष्ण को कंस से बचाने के लिए यमुना पार करके नंदगाव जा रहे थे !  इतना ही नहीं भविष्य पुराण में तो इस बात का भी उल्लेख मिलता है कि वासुकि नाग के सिर पर ही नागमणि विराजमान है ! वासुकि ने भगवान शिव की सेवा के लिए शेषनाग की तरह ही राजपाठ का त्याग कर अपने छोटे भाई ततक्षत का राजतिलक कर दिया था ! वासुकि नाग भगवान शिव के गले में कैसे पहुंचे इसके पीछे धर्म ग्रंथों में कई कथाओं का उल्लेख मिलता है जिसमे से सबसे पहली कथा के अनुसार नागों ने ही सबसे पहले भगवान शिव की शिवलिंग के रूप में पूजा की थी ! उस समय वासुकि नाग ही नागों के राजा हुआ करते थे ! एक दिन वासुकि की भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उनसे वरदान मांगने को कहा ! जिस पर वासुकि ने वरदान के रूप में शिवजी के समीप रहकर उनके दूसरे गणों की तरह सेवा करने की इच्छा जताई ! जिसके बाद वासुकि नाग से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें अपने गले में धारण कर लिया ! वहीं दूसरी कथा समुद्र मंथन के समय की है ! समुद्र मंथन के लिए रस्सी के रूप में वासुकि नाग को ही मंदराचल पर्वत के चारों ओर लपेटा गया था ! मंथन के पश्चात् वासुकि नाग का पूरा शरीर लहूलुहान हो गया था ! फिर भी भगवान शिव को जब विष पीना पड़ा तब वासुकि नाग सहित सभी नागों ने भगवान शिव की सहायता की और विष को ग्रहण किया ! उसके बाद वासुकि नाग की नि:स्वार्थ भक्ति देखकर भगवान शिव ने वासुकि नाग को अपने गले में धारण कर लिया !

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जबकि तीसरी कथा भगवान शिव और माता आदि शक्ति की अवतार सती के विवाह से जुडी हुई है ! कथा के अनुसार जब भगवान शिव और माता सती का विवाह होना था तब सभी देवगणों ने भगवान शिव से कहा - हे प्रभु ! आप श्रृंगार कर ले जबकि भगवान शिव का श्रृंगार से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं था ! देवगणों के आग्रह पर भगवान शिव ने अपने श्रृंगार की जिम्मेदारी नागों को सौंप दी जिसके बाद श्रृंगार करते समय वासुकि नाग स्वंय भगवान शिव के गले में आभूषण की तरह लिपट गए ! वासुकि नाग का अपने प्रति समर्पण देखकर भगवान शिव अति प्रसन्न हुए ! उन्होंने अपने विवाह के बाद भी वासुकि नाग को अपने गले में लिपटे रहने दिया ! मित्रों ! ये तीनों कथाएं भगवान शिव के गले में वासुकि नाग को लिपटे रहने के विषय में बहुत प्रचलित है ! लेकिन आपको ये बता दे कि वासुकि नाग भगवान शिव के गले में केवल आभूषण की तरह विराजमान नहीं है बल्कि उन्होंने ऐसे भी कार्य किये है जो उनके शिव के प्रति समर्पण को दर्शाते है ! त्रिपुरदाह के समय वासुकि नाग शिव के धनुष की डोर बन  गए थे ! शिव जी वासुकि को अपनी सवारी नंदी की तरह ही प्रेम करते है और यही वजह है कि शिव और शिवलिंग को वासुकि नाग के बिना अधूरा माना जाता है ! शिव की नगरी काशी में एक मंदिर नाग वासुकि के नाम से प्रसिद्ध है ! यह माना जाता है कि सच्चे मन से इस मंदिर में की गयी पूजा से कालसर्प दोष दूर होता है !


आखिर परसुराम को अपनी माँ की ऐसी कोनसी बात पता लगी जो उन्होंने अपनी माता का सिर काट दिया था ? परसुराम ने अपनी माता का सिर क्यों काटा?


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आपने अक्सर सुना होगा कि भगवान विष्णु के छठे अवतार माता रेणुका और भृगुवंशीय जमदगनी के पुत्र परशुराम ने अपनी माँ का सिर काट दिया था !लेकिन हम में से कितने लोगों को इसके पीछे का कारण पता है ! शायद बहुत कम लोगों को ही ये रहस्य मालुम होगा ! आइये जानते है कि क्यों काटा भगवान परशुराम ने ही अपनी माता का सिर ! ऋषि जमदगनी और और माता रेणुका के 5 तेजस्वी पुत्र थे ! जिनके नाम थे - रुक्मवान , शुषेणु , वशु , विश्ववसु  और परशुराम ! परशुराम को भगवान शिव से विशेष परशु प्राप्त हुआ था ! इनका नाम तो राम था किन्तु भगवान शिव द्वारा प्रदान किये गए अमोघ परशु को सदैव धारण किये रहने के कारण ये परशुराम कहलाते थे ! भगवान विष्णु के 10 अवतारों में से छठा अवतार था परशुराम जो वामन एवं रामचंद्र के मध्य मे गिने जाते है ! ऋषि दुर्वासा की भांति परशुराम भी अपने क्रोधी स्वभाव के लिए विख्यात है ! एक बार की बात है परशुराम की माँ माता रेणुका अपने पति जमदग्नि के स्नान के लिए जल लाने के लिए सरोवर पर गयी ! सयोंग की बात , उस समय एक यक्ष सरोवर में कुछ यक्षणियों के साथ जल विहार कर रहा था ! रेणुका सरोवर के तट पर खड़ी होकर यक्ष के जल विहार को देखने लगी वो यह बात भूल गयी कि उसके पति के नहाने का समय हो रहा है और उसे शीघ्र जल लेकर जाना चाहिए ! कुछ देर बाद रेणुका को अपने कर्तव्य का बोध हुआ और वो घड़े में जल लेकर आश्रम में गयी ! घड़े को रखकर देरी के लिए क्षमा मांगने लगी ! जमदग्नि ने अपनी योग दृष्टि से सब जान लिया ! जमदग्नि क्रोध में आ गए ! उन्होंने अपने पुत्रों को आज्ञा दी कि अपनी माता का सिर काटकर धरती पर फ़ेंक दे लेकिन चारों पुत्रों ने इंकार कर दिया !इस पर ऋषि जमदग्नि ने अपने छोटे पुत्र परशुराम को आज्ञा दी कि वो अपने चारों अवज्ञाकारी भाइयों और अपनी माता का सिर काट दे ! परशुराम अपने पिता के अनन्य भक्त थे ! साथ ही उन्हें अपने पिता की यौगिक शक्तियों का भी ज्ञान था वे जानते थे कि यदि उनके पिता उनके आज्ञा पालन से प्रसन्न हो गए तो वे वापिस अपनी माता और भाइयों को जीवित करा देंगे ! इस बात का स्मरण कर परशुराम ने अपनी माता का सिर काट दिया ! इस पर जमदग्नि प्रसन्न हुए और परशुराम से वर मांगने को कहा !
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 परशुराम ने कहा - हे पिताश्री यदि आप मुझ पर प्रसन्न है तो कृपा करके मेरी माता और मेरे भाइयों को पुन्नः जीवित कर दे ! ऋषि जमदग्नि ने अपनी पत्नी और अपने पुत्रों को पुन्नः जीवित कर दिया !  एक बार सहस्त्रबाहु नाम का राजा उस वन में आखेट के लिए गया जहां जमदग्नि ऋषि का आश्रम था ! राजा अपने सैनिकों के साथ उनके आश्रम में उपस्थित हुआ ! ऋषि जमदग्नि ने राजा का और उनके सैनिकों का अपनी कामधेनु गाय की सहायता से राजसी स्वागत किया और उनके खाने-पीने का प्रबंध किया ! कामधेनु का चमत्कार देखकर राजा मोहित हो गया ! उसने जमदग्नि ऋषि से कहा कि - उन्हें वे अपनी गाय दे दे ! ऋषि ने इंकार कर दिया ! उनके इंकार करने पर सहस्त्रबाहु अपने सैनिकों के साथ कामधेनु को बलपूर्वक ले गए ! परशुराम जब आश्रम में आये तो उनके पिता ऋषि जमदग्नि ने सारी बातें उन्हें बताई ! ये सुनकर परशुराम को क्रोध आ गया और वे अपना परशु लेकर आश्रम से निकल पड़े ! अभी सहस्त्रबाहु राजा मार्ग में ही था कि परशुराम उसके सामने आ गए ! एक ओर हज़ारों सैनिक थे , दूसरी ओर अकेले परशुराम थे ! घनघोर युद्ध होने लगा ! परशुराम ने अकेले ही सारी सेना को मृत्यु के मुख में पहुंचा दिया ! तब सहस्त्रबाहु स्वयं ही युद्ध करने लगा ! वह अपने हज़ारों हाथों से हज़ार बाण एक ही साथ परशुराम पर छोड़ने लगा ! परशुराम उसके समस्त बाणों को दो हाथों से ही नष्ट करने लगे ! अपने बाणों को विफल होता देख सहस्त्रबाहु ने एक बड़ा वृक्ष उखाड़कर परशुराम पर फेंका ! परशुराम ने उस वृक्ष को खंड - खंड तो कर ही दिया साथ ही सहस्त्रबाहु का सिर भी काटकर पृथ्वी पर गिरा दिया ! परशुराम कामधेनु को वापिस लेकर आश्रम आ गए !
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 इससे उनके पिता बहुत प्रसन्न हुए ! लेकिन उन्हें यह जानकर बहुत दुःख हुआ कि परशुराम ने सहस्त्रबाहु का वध कर दिया है ! उन्होंने परशुराम से कहा कि - उन्हें हत्या के पाप से मुक्ति पाने के लिए एक वर्ष तक तीर्थों में भर्मण करना चाहिए ! परशुराम तीर्थों में भर्मण के लिए निकल पड़े ! उधर सहस्त्रबाहु के पुत्र बदला लेने का अवसर ढूंढ रहे थे ! एक दिन जब परशुराम और उनके भाई आश्रम में नहीं थे तब सहस्त्रबाहु के पुत्र आश्रम में आ गए ! जमदग्नि ध्यानस्थ बैठे थे ! सहस्त्रबाहु के पुत्रों  ने उनका मस्तक काट डाला ! वे अपने साथ उनका मस्तक भी ले गए ! रेणुका माता विलाप करने लगी ! जब परशुराम आये तो उनकी माता ने सारी बात बता दी ! परशुराम अपना परशु लेकर महिष्मति गए जहां सहस्त्रबाहु का महल था ! उन्होंने  महिष्मति को तो उजाड़ ही दिया साथ ही सहस्त्रबाहु के सारे पुत्रों का वध कर दिया ! उन्होंने अपने पिता का मस्तक लाकर अपनी माँ को दिया ! रेणुका अपने पति के साथ सती हो गयी ! इस घटना के पश्चात परशुराम ने 21 बार पृथ्वी को क्षत्रियों से विहीन कर दिया ! श्रीराम अवतार में भगवान श्री राम ने जब उनके क्रोध को शांत किया , तब वे पर्वत पर जाकर तप करने लगे ! उनकी शूरता और वीरता ने उन्हें अमर बना दिया !

क्या आप जानते है विष्णु जी के कल्कि अवतार के बारे में ? क्या क्या थे विष्णु के कल्कि अवतार के रहस्य ?

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हिन्दू धर्म ग्रंथों में इस बात का वर्णन मिलता है कि जब - जब धरती पर पाप और अन्याय बढ़ा है तब भगवान विष्णु किसी न किसी रूप में धरती पर पापियों का नाश करने के लिए प्रकट हुए  है ! वामन अवतार , नृसिंह अवतार , मत्स्य अवतार , श्री राम अवतार ,श्री कृष्ण अवतार ये सभी इस बात के प्रमाण है ! शास्त्रों में विष्णु जी के 10 अवतारों का उल्लेख मिलता है !इनमे से अब तक वे 9 अवतार ले चुके है ! लेकिन कलयुग में भगवान का अंतिम अवतार होना अभी बाकी है ! ऐसा माना जाता है कि कलयुग जब अपनी चरम सीमा पर पहुंच जायेगा तब विष्णु जी कल्कि अवतार लेकर कलयुग का अंत करेंगे और धर्म युग की स्थापना करेंगे ! कल्कि अवतार आज भी लोगों के लिए एक रहस्य है !
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 हर कोई जानना चाहता है कि भगवान विष्णु अपना कल्कि अवतार कब लेंगे, कहाँ लेंगे , उनका रूप कैसा होगा और उनका वाहन क्या होगा ? ऐसे तमाम सवालों के जवाब श्रीमद भगवदगीता में मौजूद है ! श्रीमद भगवदगीता में श्री कृष्ण ने कहा है कि जब-जब धर्म की हानि होती है , अधर्म और पाप का बोलबाला होता है , तब-तब धर्म की स्थापना के लिए वह अवतार लेते है ! श्रीमद भागवद्पुराण के 12 स्कन्द में लिखा है कि भगवान का कल्कि अवतार कलयुग के अंत और सतयुग के संधिकाल में होगा ! शास्त्रों की माने तो भगवान राम और श्री कृष्ण का अवतार भी अपने-अपने  युगों के अंत में हुआ था ! इसलिए कलयुग का अंत जब निकट आ जायेगा तब भगवान कल्कि जन्म लेंगें ! हमारे धर्म ग्रंथों में कल्कि अवतार से संबंधित एक श्लोक का उल्लेख किया गया है जो ये दर्शाता है कि कलयुग में भगवान का कल्कि अवतार कब और कहाँ होगा  और उनके पिता कौन होंगे !
             सम्भल ग्राम मुख्यस्य ब्राह्मणस्यमहात्मन :
               भवनेविष्णुयशस: कल्कि प्रादुभविष्यति !!
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   अर्थात सम्भल ग्राम में विष्णुयश नामक श्रेष्ठ ब्राह्मण के पुत्र के रूप में भगवान कल्कि का जन्म होगा ! ये घोड़े पर सवार होकर अपनी तलवार से दुष्टों का संघार करेंगे ! तभी सतयुग प्रारम्भ होगा ! भगवान विष्णु का कल्कि अवतार निष्कलंक अवतार के नाम से भी जाना जायेगा ! इस अवतार में उनकी माता का नाम सुमति होगा ! इनके अलावा इनके 3 बड़े भाई भी होंगे ! जो सुमंत , प्राज्ञ और कवि के नाम से जाने जायेंगे ! याज्ञवलकय जी  उनके पुरोहित और भगवान परशुराम गुरु होंगे ! भगवान श्री कल्कि की दो पत्नियां होंगी  -   लक्ष्मी रुपी पद्मा और वैष्णवी रुपी रमा ! उनके पुत्र होंगे - जय, विजय, मेघमाल और बलाहक ! पुराणों में बताया गया है कि कलयुग के अंत में भगवान ये अवतार धारण करेंगे और अधर्मियों का अंत करके फिर से धर्म का राज्य स्थापित करेंगे !


जब स्वर्ग से आयी अप्सरा ने अपने पति को नग्न न देखने की शर्त , एक अनसुनी सी सच्ची कहानी ।

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हिन्दू धर्म में वेदों को पवित्र धर्म ग्रंथ और ज्ञान का स्तोत्र माना गया है ! हमारे कुल 4 वेद है ! जिनमे हमे कई ऐसी रोचक कथाओं का वर्णन मिलता है जिनसे हमे ज्ञान की कई बातें पता चलती है ! उन्ही वेदों में से एक ऋग्वेद की एक कथा हम आपके सामने लेकर आये है ! ऋग्वेद की इस बेहद ही रोचक कथा के अनुसार एक अप्सरा ने अपने ही पति से उसे नग्न न देखने का वचन लिया था ! क्यों लिया था इस अप्सरा ने अपने ही पति से ऐसा अनोखा वचन   ? और क्या थी वो पूरी कथा ? आइये हम आपको बताते है ! इस कथा के अनुसार स्वर्ग लोक में उर्वशी नाम की एक अप्सरा थी ! वो बहुत ही सूंदर थी ! वो देवों के राजा इन्द्र देव के दरबार में प्रत्येक संध्या नृत्य किया करती थी !
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 पर उसने कभी अपना हृदय किसी को भी अर्पित नहीं किया था ! एक बार की बात है वो अपनी सखी के साथ भू लोक पर विचरण कर रही थी ! तभी एक असुर की दृष्टि उर्वशी पर पड़ी ! उर्वशी के आलोकिक सौंदर्य को देखकर असुर मंत्रमुग्ध हो गया और उसने उर्वशी का अपहरण कर लिया ! वह उर्वशी को एक रथ में लिए चला जा रहा था कि उसी समय चंद्रवंशी राजा पुरुरवा वहां से गुजर रहे थे ! पुरुरवा बड़े ही वीर और पराक्रमी राजा थे ! उन्होंने उर्वशी की चीत्कार सुनी तो बिना किसी देरी के उन्होंने असुर पर आक्रमण कर दिया और क्षण भर में उस असुर को अपनी तलवार से मौत के घाट उतार दिया ! उधर उर्वशी राजा की वीरता और सौंदर्य को देखकर उन्हें अपना दिल दे बैठी ! यही हाल राजा पुरुरवा का भी था ! वो भी उर्वशी की सुंदरता को देखकर उससे मोहित हो चुके थे ! किन्तु पुरुरवा के कुछ कहने से पहले ही उर्वशी स्वर्ग लोक लौट गयी ! उर्वशी के स्वर्ग लौटने के बाद पुरुरवा उसके लिए बहुत बैचेन रहने लगे ! उधर स्वर्गलोक पहुंच कर भी उर्वशी का मन पृथ्वीलोक में लगा रहता ! इधर पुरुरवा को भी समझ नहीं आ रहा था कि वो करे तो क्या करे ? उसने अपने एक मित्र को ये व्यथा कह सुनाई !

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 एक दिन वे अपने उद्यान में अपने बचपन के मित्र राजविदूषक के साथ बैठे हुए थे और उनसे उर्वशी के संबंध में बातें कर रहे थे कि उर्वशी उनके पीछे आकर खड़ी हो गयी !  यद्यपि वह दिखाई नहीं दे रही थी उसने पुरुरवा को अपने उपस्थित होने का बोध करा दिया ! फिर दोनों परस्पर आलिंगन में बंध गए ! उसी समय स्वर्ग लोक से एक दूत आया और उसने उर्वशी को देवराज इन्द्र का संदेश सुनाया ! इन्द्र ने उसे आज्ञा दी थी कि वो तत्काल स्वर्ग लोक पहुंचकर एक विशेष नृत्य नाटिका में भाग ले ! लाचार होकर उर्वशी को लौट जाना पड़ा लेकिन उस दिन उर्वशी का मन नृत्यनाटिका में नहीं लग रहा था ! उस नृत्य में उर्वशी देवी लक्ष्मी का किरदार निभा रही थी ! एक सवांद में उसे भगवान विष्णु को पुकारना था ! परन्तु अनजाने में वो पुरुरवा को पुकार बैठी ! 
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ये देख नृत्य नाटिका के रचयिता भरतमुनि ने क्रोधित होकर तुरंत उसे श्राप दे दिया - '' तुमने मेरी नाटिका में चित्त नहीं रमाया ! तुम भू लोक जाकर वहाँ पुरुरवा के साथ मनुष्य की भांति ही रहो " ! उर्वशी और क्या चाहती थी ! वह पुरुरवा से प्रेम करने लगी थी ! यह सुनकर वो खुश हो गयी ! किन्तु वह अधिक दिनों तक मृत्युलोक में नहीं रहना चाहती थी ! अतएव देवराज इंद्र के पास पहुंचकर वह विनती करने लगी कि वह उसको श्राप मुक्त कर दे ! तब इंद्र ने कहा - हे उर्वशी ! तुम भूलोक जाओ किन्तु तुम अधिक दिनों तक वहां नहीं रहोगी ! अतएव उर्वशी को पुरुरवा के पास जाना पड़ा ! उर्वशी को राजा पुरुरवा के पास जाने की ख़ुशी तो थी किन्तु साथ ही स्वर्ग लोक के सारे आनंदों से वंचित होने का दुःख भी था ! पृथ्वी पर पहुंचकर उसने राजा पुरुरवा से कहा - राजन मैं तुम्हारे साथ रहूंगी , तुम्हारी दुल्हन बनूँगी , किन्तु मेरी कुछ शर्तें है ! जिसके बाद पुरुरवा ने शर्त बताने को कहा ! उर्वशी बोली मेरी पहली शर्त यह है कि मैं अपने साथ दो मेमनों को भी लाई हूँ !
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 जिसकी देखभाल तुम्हे करनी होगी !  दूसरी शर्त ये है कि तुम्हे राजमहल से बाहर रहना होगा और तीसरी शर्त ये है कि मैं तुम्हे निर्वस्त्र कभी न देखूं ! इनमे से अगर कोई भी शर्त खंडित होती है तो मैं उसी दिन वापिस स्वर्ग चली जाऊँगी ! उर्वशी की शर्तों को सुनकर पुरुरवा ने उन्हें तुरंत मंजूर कर लिया ! फिर दोनों का विवाह सम्पन्न हुआ ! दोनों ख़ुशी पूर्वक साथ रहने लगे ! दोनों एक दूसरे को बहुत प्यार करते ! उनकी चर्चा तीनों लोकों में होने लगी ! उधर अप्सरा उर्वशी के बिना इंद्रदेव को स्वर्ग लोक अधूरा लग रहा था ! दोनों के प्रेम की बातें सुनकर देवराज इंद्र से भी रहा नहीं गया ! उसने एक योजना बनाई और योजना के अनुसार एक रात को उन्होंने गंधर्वों को मेमनों को चोरी करने के लिए भेजा ! गंधर्वों ने चोरी करते हुए जानबूझकर आवाज की जिससे उर्वशी जग गयी ! उसने पुरुरवा से कहा - इधर आप निद्रा में मग्न है उधर गंधर्व मेरा मेमना चोरी कर गए ! ये सुन पुरुरवा तुरंत कक्ष से निकलकर मेमनों को बचाने के लिए दौड़ पड़े ! पर उसी समय इंद्रदेव ने बिजली कड़कायी जिसकी वजह से उजाला हो गया और उर्वशी ने राजा पुरुरवा को निर्वस्त्र देख लिया ! उसी क्षण उर्वशी अंतर्ध्यान हो गयी ! इसके बाद पुरुरवा ने उर्वशी की तलाश में सम्पूर्ण भूलोक छान मारा ! वह पर्वतों , घाटियों में भटकता रहा ! वह विक्षिप्त हो कभी-कभी वन की लताओं को उर्वशी समझकर आलिंगन कर लेता ! एक वर्ष पश्चात उर्वशी राजा पुरुरवा के पास आयी और उसे एक पुत्र सौंप गयी ! साथ ही उसने यह वचन भी दिया कि वो हर वर्ष के अंतिम दिन उनसे मिलने आएगी ! और इस प्रकार वर्ष के एक दिन ही उर्वशी और राजा पुरुरवा एक साथ होते थे !